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Saturday, August 30, 2008

हम बेटी वालें हें

आप अगर बेटी वाले हें तो यह लेख आपके लिए है।

Wednesday, August 27, 2008

राम दुलारी की कहानी

राम दुलारी ने आठवीं कक्षा पास की है, ऐसा उस के परिवार वालों ने कहा था. जिन श्रीमान से उसकी शादी हुई उन्होंने समाज शास्त्र में एम्ऐ किया था पर समाज और शास्त्र के बारे में उनका ज्ञान गुलशन नंदा और प्यारेलाल आवारा के सस्ते उपन्यासों तक ही सीमित था. उधर राम दुलारी को समाज क्या है और शास्त्र क्या कहता है और उसका अपने पक्ष में कैसे इस्तेमाल करना है इसकी पूरी जानकारी थी. शादी होकर जब वह पहली बार ससुराल आई तो उसने तुंरत एलान कर दिया कि सब उसे पुष्पा के नाम से पुकारेंगे. राम दुलारी नाम उसे अच्छा नहीं लगता. फ़िर धीरे-धीरे उसने बताना शुरू किया कि और क्या-क्या उसे अच्छा नहीं लगता. अच्छा न लगने वालों की लिस्ट में सबसे ऊपर उसकी सास का नाम था. फ़िर एक दिन पुष्पा ने घोषणा की कि इस घर से उसका सम्बन्ध सिर्फ़ उस के पति तक सीमित है. कोई और व्यक्ति उस से किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध बनाने की कोशिश न करे. श्रीमान जी की माता जी ने इसे बुझे मन से स्वीकार कर लिया. बेचारी पहले ही अपनी सास के सामने कुछ नहीं बोलती थीं, अब बहू के सामने भी कुछ नहीं बोलेंगी.

पुष्पा ने कुछ दिन बाद अपना चूल्हा-चौका अलग कर लिया. उसके घर के हिस्से में उसके परिवार (मायके) के लोग इकठ्ठा रहते और खूब मजाक उड़ाते श्रीमान जी के परिवार वालों का. श्रीमान जी सस्ते सामाजिक उपन्यासों के साथ पकौड़ी और चाय गुटकते और अपने जीवन को धन्य मानते. समय रहते पुष्पा ने सेकंड लाइन आफ ओफेंस तैयार कर डाला, दो बेटे और दो बेटियाँ. बड़ी बेटी ने ससुराल जाकर अपनी मां का नाम रोशन किया. छोटी बेटी ने भी यह कोशिश की पर कामयाब नहीं हुई. उसके श्रीमान जी कुछ दूसरी किस्म के श्रीमान जी थे जो कहने में कम और करने में ज्यादा विश्वास करते थे. उनका 'काम के नीचे दो थप्पड़' का फार्मूला काम आया और पुष्पा की छोटी बेटी एक ही चूल्हे में कैद हो गई.

फ़िर पुष्पा ने शादी की बड़े बेटे की. बहू के घर में प्रवेश करते ही पुष्पा ने अपना वायो-डाटा उसे सुना दिया. बेचारी इतना डर गई कि कभी कुछ बोली ही नहीं. पुष्पा ने उसका काफ़ी सामान अपने कब्जे में कर के उसे अलग कर दिया. या यह कहिये कि छोटे बेटे को साथ लेकर अलग हो गई. बस यहीं पुष्पा गच्चा खा गई. जिस बेटे पर उस ने अपनी सारी उम्मीदें लगा रखी थीं वह छोटा बेटा जरा दूसरे टाइप का निकल गया. उसने साफ़-साफ़ कह दिया कि मां-बाप उसके साथ रह सकते हैं पर उन्हें अपना खर्चा ख़ुद करना होगा. पुष्पा के दुर्भाग्य से छोटी बहू भी उसी के टाइप की निकली. नहले पर देहला हो गया. कुछ दिन बाद छोटे बेटे ने अलग मकान ले लिया. पुराने मकान में एक कमरा छोड़ कर बेटा बाकी कमरों में ताला लगा गया. अब पुष्पा अपने श्रीमान जी के साथ इस कमरे में रहती हैं. श्रीमान जी ६८ वर्ष की आयु में नौकरी करते हैं तब दो वक्त की रोटी मिल पाती है. पुष्पा समय बिताने के लिए जादू-टोना करती है. बीमार रहती है पर उस से सब डरते हैं, पता नहीं कब किस पर जादू-टोना करदे.

राम दुलारी की कहानी यहाँ विश्राम लेती है. आगे की कहानी जब जैसा होगा बताया जाएगा.

Tuesday, August 26, 2008

आज बजेगा अन्याय के ख़िलाफ़ युद्ध का बिगुल

'पापा मैं शादी नहीं करूंगी', नीता घर में घुसते हुए चिल्लाई.
पिता अकस्मात इस हमले से आश्चर्यचकित हो गए. फ़िर संभल कर बोले, 'क्या हुआ बेटी?'
बेटी बोली, 'आपको पता है न, ममता की तीन महीने पहले शादी हुई थी, तभी से उसकी ससुराल वाले उसे दहेज़ के लिए परेशान कर रहे हैं. दो इन पहले उस के पति ने उसे बहुत बुरी तरह मारा'.
पिता दुबारा चकराए, 'अरे यह तो बहुत ग़लत बात है. क्या ममता ने इस का विरोध नहीं किया?'
'वह क्या करती', बेटी ने कहा, 'पति उसे पीट रहा था, उसकी मां और बहन उसकी दाद दे रही थी, पिता चुपचाप बैठे तमाशा देख रहे थे'.
'पर ममता तो अकेली इन चारों के लिए काफ़ी थी. उस ने कराते किस लिए सीखा था?' पिता बोले.
'पापा वह उस का पति था', बेटी रोने को हो आई.
'नहीं, जो पुरूष उसे पीट रहा था उसका पति नहीं था', पिता ने कहा, 'पति पत्नी को पीटता नहीं, पति पत्नी की रक्षा करता है. जो उसे पीट रहा था वह एक वहशी दरिंदा था, और ऐसे वहशी दरिंदों को सबक देने के लिए ही उस ने कराते सीखा था'.
'पर पापा',
'कुछ पर बर नहीं', पिता बोले, 'ममता ने चुपचाप पिट कर अन्याय का साथ दिया है. अब मुझे यह बताओ, उस के पिता क्या कर रहे हैं? उसके आफिस के लोग क्या कर रहे हैं? तुम उसकी सहेली हो, तुम क्या कर रही हो?'
'उसके पिता उसे अपने घर ले गए हैं. आफिस के लोग और मैं क्या कर सकते हैं?'
'कैसी बात कर रही हो? बेटी तुमने आज मुझे निराश किया'.
'क्यों पापा, मुझे क्या करना चाहिए था",
'पुलिस में रिपोर्ट लिखाओ, उस दरिन्दे के दफ्तर जाकर प्रदर्शन करो, ममता से कहो वापस अपनी ससुराल जाए. अपने पिता के घर जाकर उस ने दूसरी गलती की है'.
'लेकिन वह फ़िर मारेंगे उसे'.
'ममता से कहो कि अगर वह दुबारा उस पर हाथ उठाये तो वह उस का हाथ तोड़ दे'.
'पापा यह क्या कह रहे हैं आप?'
'मैं सही कह रहा हूँ', पिता ने द्रढ़ता से कहा, 'अगर तुम्हारे साथ ऐसी स्थिति आई तो मैं चाहूँगा तुम भी यही करो'.
'पापा इसीलिए तो मैंने शादी न करने का फ़ैसला किया है'. बेटी बोली.
'यह फ़ैसला ग़लत है. दफ्तर में यौन शोषण की घटनाएं होती हैं, क्या इस लिए तुमने दफ्तर जाना छोड़ दिया है? सड़कों पर गुंडे चैन छीनकर भाग जाते हैं, क्या इसलिए तुमने घर से बाहर निकलना बंद कर दिया है? अन्याय, शोषण और अत्त्याचार के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़नी है, उस से हार नहीं माननी. ममता ने अगर इस समय हार मान ली तो उस की सारी जिंदगी नर्क बन जायेगी. उसे लड़ना है अपने लिए, अपने माता-पिता के लिए, अपने जैसी और लड़कियों के लिए. उस की इस लड़ाई में हम सबने उस का साथ देना है. वह जीतेगी तो हम जीतेंगे, तुम जीतोगी, हमारा समाज जीतेगा'.
'आप ठीक कह रहे हैं पापा', बेटी की आवाज में एक दृढ निश्चय था,'मैं घबरा गई थी, मुझे माफ़ कर दीजिये. अब आपकी बेटी आप को निराश नहीं करेगी'.
और वह फुन्कारती हुई घर से बाहर निकल गई.
आज बजेगा अन्याय के ख़िलाफ़ युद्ध का बिगुल.

Saturday, August 23, 2008

भगवान् बोले,मैंने भी तो अपना घर बचाना है

कल रात मैंने एक सपना देखा,
सपने में देखा भगवान् को,
मैं तो उन्हें पहचान नहीं पाया,
पहले कभी देखा नहीं था न,
पर वह मुझे पहचान गए,
कहने लगे, 'तुम सुरेश हो न?',
मैंने कहा हाँ, और आप?
उन्होंने बताया मैं भगवान् हूँ,
मैंने कहा आप से मिल कर बहुत खुशी हुई,
'लेकिन मुझे नहीं हुई', वह बोले,
मैं घबरा गया, काँपने लगा,
बोला, 'क्या गलती हो गई भगवन?'
'यह क्या उल्टा-सुलटा लिखते रहते हो ब्लाग्स पर?
जानते नहीं यह नारी प्रगति का ज़माना है,
और कलियुग में प्रगति का मतलब है उल्टा चलना,
वास्तव में यह उल्टा चलना ही सीधा चलना है,
इतनी सी बात नहीं समझ पाते तुम?
अब नारी घर के बाहर रहेगी,
हर वह काम करेगी जो पुरूष करता है,
घर चलाना है तो पुरूष को करना होगा हर वह काम,
जो नारी करती थी अब तक,
वरना न घर होगा न घरवाली',
इतना कह कर वह अद्रश्य होने लगे,
मैं चिल्लाया, 'मेरी बात तो सुनिए',
अद्रश्य होते-होते वह बोले,
'इतना ही समय दिया था मुझे मेरी पत्नी ने,
मैंने भी तो अपना घर बचाना है'.

Saturday, August 16, 2008

लड़कियों को दिए जाने वाले आशीर्वाद

सोमवार की बात है. शताब्दी एक्सप्रेस से चंडीगढ़ जा रहा था. वेटर अखबार देने आया तो हिन्दी का अखबार ले लिया. उसमें एक लेख था - "लड़कियों को दिए जाने वाले आशीर्वाद". लेख का सारांश था - 'भारतीय समाज में लड़कियों को दिए जाने वाले आशीर्वाद ऐसे हैं, जो घूम फ़िर कर उन के पति की लम्बी आयु की ही कामना करते दिखाई पड़ते हैं या फ़िर उन के पुत्र जन्म के लिए प्रेरित हैं. लकिन आज समय बदल गया है. आज के दौर में दूधों नहाओ पूतो फलो जैसे आशीर्वादों का कोई अर्थ नहीं है. आज की लड़कियां चाहती हैं कि इस आशीर्वादों की जगह नए आशीर्वाद दिए जाने की स्वस्थ परम्परा शुरू होनी चाहिए".

लेखक सुधांशु गुप्त ने इन आशीर्वादों का कोई अर्थ नहीं है, यह तो कह दिया पर नए आशीर्वाद क्या हों इस बारे में कुछ नहीं कहा. कुछ स्त्रियों के बारे में भी उन्होंने लिखा है जो इन आशीर्वादों को अर्थहीन मानती हैं या अपमान समझती हैं, पर उन्होंने भी नए आशीर्वाद क्या हों इस बारे में कुछ नहीं कहा. 'दूधों नहाओ पूतो फलो' का नया रूप क्या होना चाहिए? 'सौभाग्यवती भव' पर उन्हें ऐतराज है क्योंकि इस का मतलब है कि पत्नी पति से पहले मरे. इस ऐतराज को कैसे दूर किया जाए? मेरे विचार में जिन स्त्रियों को यह आशीर्वाद अपमानजनक लगते हैं, उन्हें इस बारे में कुछ करना होगा. एक तरीका हो सकता है कि आशीर्वाद देने की इस अस्वस्थ परम्परा को ही समाप्त कर दिया जाय. पर आज भी ऐसी बहुत सी स्त्रियाँ हैं जो प्रणाम करते समय इन आशीर्वादों की ही इच्छा रखती हैं. उनके लिए यह आशीर्वाद पूरी तरह अर्थपूर्ण हैं. पति-पत्नी के बीच में प्रेम और इन आशीर्वादों में एक सम्पूर्ण सामंजस्य हैं. इस लिए यह तरीका प्रक्टिकल नहीं लगता. यह हो सकता है कि प्रणाम करते समय पहले ही कह दिया जाय कि कौन सा आशीर्वाद चाहिए, पति के पक्ष में या पत्नी के पक्ष में. या यह भी हो सकता है कि प्रणाम करना ही बंद कर दिया जाय. न होगा बांस न बजेगी बांसुरी.

मुझे जब भी कोई प्रणाम करता है या करती है, तो में एक ही आशीर्वाद देता हूँ - 'सुखी रहो, स्वस्थ रहो, सानंद रहो'. यह आशीर्वाद सबके लिए है, विवाहित या अविवाहित, पुरूष या स्त्री. अभी तक तो किसी ने इस पर ऐतराज किया नहीं. बैसे भी में जबरदस्ती आशीर्वाद नहीं देता. जब कोई प्रणाम करता है तभी आशीर्वाद देता हूँ.

Sunday, August 10, 2008

इन नारियों की भी चिंता करो

दिल्ली में लगभग २००.००० ऐसी महिला मजदूर हैं जो दूसरे शहरों से आई हैं और कंस्ट्रक्शन साइट्स पर काम करती हैं. यह महिलायें रोजगार की तलाश में दिल्ली आती है और अमानवीय परिस्थितियों में रहने के लिए विवश हैं. इन की दयनीय स्थिति के बारे में जानने के लिए नीचे दी गई लिंक पर क्लिक करें.

Sorry state of Delhi's women labourers

मैंने इंटरनेट से कुछ तस्वीरें ली हैं जो यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ. यह तस्वीरें ख़ुद ही सब कुछ कह रही हैं.


























































दिल्ली में मादीपुर नाले के किनारे यह महिलाएं अपने परिवार के साथ रह रही हैं।

आज कल ब्लाग्स पर नारी प्रगति के बारे में बहुत कुछ लिखा जा रहा है. पर इन मजदूर महिलाओं के हालात सुधारे बिना नारी प्रगति की बात करना मुझे एक अपराध सा लगता है. मैंने कई बार यह बात इन ब्लाग्स पर उठाई है पर कोई इस बात का नोटिस ही नहीं लेता. कितना दुर्भाग्यपूर्ण है यह.

Friday, August 8, 2008

क्या नौकरी को नारी प्रगति का मापदंड मान लेना सही है?

अगर हम नारी समस्यायों से सम्बंधित ब्लाग्स पर जाएँ तो लगता है कि सारी नारी समस्यायें सिमट कर नौकरी पर आ गई हैं, या फ़िर नौकरी को आजादी पाने के लिए एक शस्त्र के रूप में प्रयोग किया जा रहा है. दोनों ही बातें ग़लत हैं. अगर नौकरी से नारी की सारी समस्यायें दूर हो गई होतीं तो जीवन भर नौकरी करने वाली अशिक्षित नारियां भी तरक्की कर गई होतीं. केवल शिक्षित नारियां ही नारी वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करती. नारियां बहुत बड़ी संख्या में खेतों में नौकरी करती हैं, बिल्डिंग साइट्स पर नौकरी करती हैं, घरों में नौकरी करती हैं. इन नारियों की संख्या शिक्षित होकर नौकरी करने वाली नारियों से बहुत ज्यादा है. जीवन भर नौकरी करने के बाद भी यह नारियां अपने जीवन स्तर में कोई सुधार नहीं कर पाती. नौकरी करने वाली शिक्षित नारियां तो अपनी बात ब्लाग्स पर या अन्य कहीं कह भी लेती हैं, पर अशिक्षित नारियां तो बेचारी कहीं कुछ कह भी नहीं पाती. उन्हें तो यह भी पता नहीं कि क्या कहा जाए और कहाँ कहा जाए.

जिन नारियों ने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की है वह वधाई की पात्र हैं. लेकिन इन में ज्यादा वह नारियां है जिन्हें शिक्षा के पूरे अवसर मिले और वह इस योग्य बन सकीं कि अपना भला-बुरा ख़ुद सोच सकें. यही नारियां एक दूसरे की बात भी करती हैं ब्लाग्स पर और अन्य माध्यमों पर. पर इनकी संख्या कितनी है? क्या इनकी प्रगति को देख कर यह कहा जा सकता है कि नारी जाति ने प्रगति कर ली है. क्या नारी प्रगति का मापदंड केवल यह नारियां ही होनी चाहियें? उन नारियों का क्या जो अशिक्षित हैं और जिनका पूरा जीवन नौकरी करते बीत जाता है, और फ़िर भी उनका जीवन स्तर ऊपर नहीं उठ पाता? कैसे रहती हैं यह नारियां? देखना चाहेंगे आप? यदि हाँ तो क्लिक करिए:

मानो या न मानो, यहाँ इंसान रहते हैं

नौकरी को नारी की प्रगति का मापदंड मान लेना ग़लत है.

Thursday, August 7, 2008

क्या शादी जरूरी है जीवन की सम्पूर्णता के लिए?

आज अखबार में एक लेख पढ़ा. लेख उन महिलाओं पर है जिन्होनें या तो शादी नहीं की या शादी के बाद पति की म्रत्यु या तलाक के कारण फ़िर अकेली हो गईं, पर कैसे उन्होंने अपनी जिंदगी के इस अकेलेपन को भर लिया और जीवन का पूरा आनंद उठा रही हैं. आप में से अगर कोई इस लेख को पढ़ना चाहें तो उन्हें आज के टाइम्स आफ इंडिया के दूसरे पन्ने पर जाना होगा.

यह महिलायें सिंगल हैं, सफल हैं और अपनी इच्छा से मां बनी हैं. उन्होंने शादी की संस्था पर विश्वास नहीं किया और बच्चों को गोद लेकर मां और पिता दोनों का कर्तव्य पूरा किया. आज वह बहुत खुश हैं. उनका परिवार खुश है. आप ख़ुद ही देख लीजिये.
यह लेख गोद लेने की कानूनी धाराओं पर भी प्रकाश डालता है.

Saturday, August 2, 2008

नौकरी करने का मजा ही कुछ और है

अब आदमी पढ़ता किसलिए है अगर नौकरी न करे? नौकरी करने का मजा ही कुछ और है. सुबह आराम से उठिए. आराम से तैयार होइए. बगल में अखबार दबाकर चल दीजिये बस की और. वहां आप जैसे और भी बहुत नौकरी करने वाले मिलेंगे. सबसे प्यार भरी नमस्कार के बाद, दिन शुरू कर दीजिये.

"देखा, दिखा दिया न भज्जी ने कमाल, अरे एक थप्पड़ ही तो मारा था श्रीशांत के. साला ऐसे रोया जैसे जीएफ किसी और के साथ भाग गई हो. बिना मतलब तीन करोड़ की चपत लग गई भज्जी को. अब वापस लौटा तो बही रंग. चटका दिए न श्रीलंका के विकेट पर विकेट. चेहरे पर कोई मलाल नहीं तीन करोड़ का. अरे इतने में तो एक एमपी खरीद लिया था मनमोहन ने. मतलब एक एमपी बराबर एक थप्पड़.

"गुरु यह उमा भारती की क्या कहानी है? विश्वास मत के बाद विश्वास मत के पहले की सीडी बना दी, लगता है अमर सिंह ने उसे भी कोई अच्छी रकम दिलवा दी."

"यार अब मोबाइल पर बकबास कालों से निजात मिलेगी. एससी का कहना है 'काल मत करो' की जगह 'काल करो' शुरू करो. जिसे यह बकबास कालें पसंद हों वही अपना नंबर दर्ज कराये."

"यार कल रात सपने में तेरी स्टेनो को देखा. साली मेरी स्टेनो तो बस, भगवान् बचाए."

"मान गए सीआईसी को. महिला यौन शोषण पर कोई कमेटी ही नहीं बनाई. हमारे दफ्तर में तो तुंरत ही बना दी कमेटी. महिलाओं से तो मजाक करने को भी तरस गए."

ऐसी ही बहुत सारी बातें, बस में और फ़िर दफ्तर में. चाय और फ़िर चाय. लंच में मूंगफली. पता नहीं दिन कब निकल जाता है. अगर नौकरी न करते तो जिंदगी कैसे बीतती? मुझे तो डर लगता है, रिटायर होने के बाद क्या करेंगे?

नौकरी करने के बहुत सारे फायदे हैं. सच पूछिए तो ईश्वर ने यह जीवन नौकरी करने के लिए दिया है. कुछ फायदों का जिक्र किया है मैंने. कुछ का आप करो.

महिलायें और नौकरी पर कुछ नहीं लिख रहा हूँ. डर है कि कहीं चोखेरवालियां नाराज न हो जाएँ.