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Save families, save society, save nation.

Thursday, July 31, 2008

कुछ प्रश्न, जवाब दें अगर देना चाहें, नारी और पुरूष दोनों

आज कल बहुत से ब्लाग्स पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है, नारी पर हो रहे अत्त्याचारों पर, नारी अधिकारों की समानता पर, नारी प्रगति पर. ऐसी बहस बहुत अच्छी होती है. समस्या है इस से किसी को इनकार नहीं हो सकता. एप्रोच अलग हो सकती है. चलिए कुछ मुद्दों पर एक राय बनाने की कोशिश करें.

क्या तरक्की करने के लिए दूसरों की आँख की किरकिरी बनना जरूरी है?

क्या शादी की फजीहतों से दुखी होकर शादी की संस्था को नकार देना जरूरी है?

क्या नारी पर अत्त्याचार के लिए केवल पुरुषों को दोष देना चाहिए?

घर में समान अधिकार नहीं हैं, आजादी नहीं है, क्या इस के लिए सब घर छोड़ कर चले जाएँ, या उसे सुधारने की कोशिश करें?

समस्याएं दोषारोपण से सुलझती हैं या आपसी मेल से?

Tuesday, July 29, 2008

नारी और पुरूष दोनों बराबर हैं

भारतीय समाज का केन्द्र बिन्दु परिवार है. जब कोई पुरूष या नारी स्वयं को समाज का केन्द्र बिन्दु मानकर परिवार की अवहेलना करता है तब परिवार टूटता है और उस के साथ टूटता है समाज. पुरूष और नारी परिवार/समाज की गाढ़ी के दो पहिये हैं. जब तक यह दोनों पहिये एक साथ नहीं चलेंगे गाढ़ी ठीक से नहीं चलेगी.

भारतीय समाज पुरूष प्रधान समाज है. आज जब की नारी हर छेत्र में न केवल पुरूष की बराबरी कर रही है बल्कि कहीं उस से आगे भी निकल रही है, यह जरूरी हो गया है कि नारी को वह सब अधिकार और सुविधाएं मिलें जिनकी वह अधिकारिणी है. पर यह सब परिवार की परिधि में रह कर ही किया जाना चाहिए.

नारी और पुरूष दोनों बराबर हैं. वह एक दूसरे के पूरक हैं. दोनों को समान अधिकारों के साथ अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्य पूरे करने हैं. यह तभी सम्भव हो पायगा जब दोनों के बीच में कोई भी अन्तर नहीं रहेगा.

Sunday, July 27, 2008

और उन्होंने अपना घर बचा लिया

यह एक सच्ची कहानी है। यह कहानी है एक प्रगतिशील नारी की. उन्होंने कक्षा वारह तक शिक्षा ली. उस के बाद वह पढ़ नहीं पाई क्योंकि शहर में कोई कालिज नहीं था. माता-पिता थे नहीं. एक दूर के नाना जी ने उनकी जिम्मेदारी ली थी. भाई टूशन करके अपनी शिक्षा का खर्चा निकाल लेते थे. किसी तरह जिंदगी चल रही थी. नाना जी चाहते थे की उन की शादी हो जाए तो एक जिम्मेदारी से मुक्त हों. पर दहेज़ और बचपन में एक वीमारी से चेहरे पर कुछ दाग हो जाने से शादी में रुकावटें आ रही थीं.

मेरे एक बचपन के साथी थे, सतीश. माता-पिता नहीं थे. दिमागी तौर पर कुछ कमजोर होने के कारण आठवीं से आगे पढ़ नहीं पाये. भाइयों और उनके परिवार की सेवा करते, भावियों की झिड़कियां खाते. किसी तरह जिंदगी चल रही थी. दोनों के जीवन में एक मोड़ आया और सतीश से उनकी शादी हो गई. नाना जी ने अपने पैसे से सतीश को एक दूकान करवा दी. पर वह उसे चला नहीं पाये और दूकान बंद हो गई. नाना जी ने कुछ पैसे से एक और काम करवा दिया पर सतीश उसे भी चला नहीं पाये. भाइयों ने बहन को अपने साथ ले जाने की बात कही. उन्होंने एक शर्त पर जाने की हामी भरी कि सतीश भी उनके साथ जायेंगे. भाइयों को बहन की जिद माननी पड़ी.

उन्हें इस तरह अपने पति के साथ भाइयों पर निर्भर होना पसंद नहीं था, पर मजबूरी थी. उन्होंने आगे पढ़ने का फ़ैसला किया. नर्सिंग का कोर्स किया. एक लोकल अस्पताल में नौकरी लग गई. अपना मकाम अलग लेकर रहने लगीं. नाना जी और भाइयों से भी कुछ मदद मिलती ही रहती थी, पर अब वह अपने पैरों पर खड़ी थीं. दो बेटियाँ और एक बेटा हुआ. तीनों की शादी की. बेटे के दो बच्चे हुए. मेरे साले की बेटी से उनके बेटे की शादी हुई. शादी में सतीश से मिलना हुआ. वह बहुत खुश थे. कहने लगे, सुरेश यह मेरे पिछले जन्म के अच्छे कर्मों का फल है कि मेरी शादी इन से हुई, नहीं तो सारी जिंदगी भाइयों के टुकड़ों पर ही बीतती. इज्जत की जिंदगी दी है इन्होनें मुझे. अब सतीश नहीं है पर उनकी यह बात नुझे अक्सर याद आती है और उनकी पत्नी के प्रति मन में आदर और बढ़ जाता है.

आज एक अच्छा खिलखिलाता परिवार है उनका. समाज में आदर है. लोग उनकी मिसाल देते हैं और कहते हैं, 'घर बचा लिया उन्होंने अपना'. एक प्रगतिशील नारी की जीती जागती मिसाल हैं वह.

Wednesday, July 23, 2008

एक पुरूष द्बारा नारी की तलाश

में एक पुरूष हूँ,
तलाश है मुझे एक नारी की,
जो मुझे पूर्णत्व प्रदान कर सके,
शास्त्र कहते हैं गुरु बिना मुक्ति नहीं,
में पुरूष ख़ुद में अधूरा हूँ,
न ही कोई गुरु मिला मुझे,
नारी पुरूष की पूरक है,
वह मुझे पूर्णत्व प्रदान कर सकती है,
और जो मुझे पूर्ण बनाएगा,
वह ही मेरा गुरु होगा.

Tuesday, July 22, 2008

प्रगतिशील नारी चुप क्यों है?

भारतीय सेना की एक महिला अधिकारी ने कुछ वरिष्ट अधिकारियों पर यौन शोषण का आरोप लगाया है. जैसा वह कह रही हैं उस से लगता है कि उन का आरोप सही है. सेना ने, जैसा स्वभाविक है, इस आरोप को नकार दिया है. जब बात अखबारों में आई तब रक्षा मंत्री ने इस शिकायत पर जांच के आदेश दिए हैं. पर जांच उन्हीं उच्च अधिकारियों को सौंपी गई है जो उसे नकार चुके हैं और जिन्होनें इस महिला अधिकारी पर अपनी और से ही आरोप लगाने शुरू कर दिए थे.

कुछ समय पहले भी ऐसा हुआ था पर उस समय महिला अधिकारी का ही कोर्ट मार्शल कर दिया गया था. मुझे डर है कि कहीं इस बार भी ऐसा ही न हो. मुझे इस बात पर भी आश्चर्य है कि ब्लाग्स पर किसी प्रगतिशील नारी ने यौन शोषण पर कोई टिपण्णी नहीं दर्ज की. क्या बात है? यह खामोशी क्यों है?

Monday, July 21, 2008

एक फ़िल्म थी सूर्यवन्शम

आप सबने देखी होगी. दो नारियों को कहानी थी. उन्होंने एक पुरूष को कैसे देखा, कैसे माना और उस के साथ कैसा व्यवहार किया? एक ने उसे बाहर से देखा और अस्वीकार कर दिया. केवल अस्वीकार ही नहीं किया बल्कि उसकी भर्त्सना भी की. दूसरी ने उसका मन देखा. उसे लगा कि वह नाम से ही हीरा नहीं बल्कि काम से भी हीरा है. उस ने उसे अपने जीवनसाथी के रूप में स्वीकार किया. दोनों ने एक दूसरे को पूर्णत्व प्रदान किया. नारी पुरूष की शक्ति बनी. पुरूष नारी की शक्ति बना. पत्नी कलेक्टर बनी.पति एक सफल व्यवसाई. समाज ने दोनों का सम्मान किया. पिता ने ऐसा पुत्र पाकर अपने को धन्य माना.

दोनों नारियां शिक्षित थीं. अपना भला बुरा समझती थीं. उन्होंने अपने निर्णय ख़ुद लिए. दूसरों ने कोशिश जरूर की उनके फैसले करने की. पर दोनों ने उन निर्णयों को नकार दिया. दोनों को मनपसंद जीवनसाथी मिले. एक का पति एक सफल व्यवसाई. दूसरी का पति अनपढ़ और बेकार, परिवार से निकाला हुआ. अनपढ़ पुरूष एक सफल व्यवसाई बना. सफल व्यवसाई अपने व्यवसाय में असफल हो गया. उसकी पत्नी सहायता के लिए दूसरी के पास आई. उसे सहायता मिली.

क्या कहेंगे आप इन दो नारियों के बारे में?

Sunday, July 20, 2008

दूल्हा चाहिए ............ एक व्यंग

मुझे एक दूल्हा चाहिए. मैं एक प्रगतिशील नारी हूँ. मेरा नाम है ........... जाने दीजिये, क्या करेंगे मेरा नाम जानकर. बैसे, नारी प्रगति के विरोधी मुझे 'आंख की किरकिरी' के नाम से जानते हैं. मैं विवाह की संस्था को दकियानूसी और नारी के विरुद्ध एक षड़यंत्र मानती हूँ. आप कहेंगे फ़िर मुझे दूल्हा किसलिए चाहिए? दरअसल मेरी मां ने यह धमकी दे दी है कि अगर मैं विवाह नहीं करूंगी तब वह आत्महत्या कर लेंगी. अब अपनी मां की जान बचाना मेरा कर्तव्य बन जाता है.

दूसरा कारण यह भी है कि जिस पुरूष के साथ मैं लिव-इन-रिलेशनशिप में रहती थी, मैंने पहले उसे ही विवाह करने के लिए कहा था, पर वह साला शादी की बात सुनते ही भाग गया. अब मैंने उस पर मुकदमा ठोक रखा है. अदालत जल्दी ही मुझे मुआबजा दिलवाएगी. इस स्थिति में 'दूल्हा चाहिए' का विज्ञापन देना पड़ा. लेकिन एक बात में साफ़ कर देना चाहती हूँ कि
शादी मेरी मर्जी और शर्तों पर होगी.

मैं शादी कोर्ट में करूंगी. तीन-चार घंटे आग के सामने बैठकर एक बेवकूफ पंडित की वकबास सुनना मेरे बस की बात नहीं है. शादी के बाद पुरूष मेरे घर पर आकर रहेगा. अनाथ पुरूष को प्राथमिकता मिलेगी. अगर किसी सनाथ पुरूष से शादी करनी पड़ी तब वह अनाथ होकर मेरे घर आएगा. मेरा मतलब है, अपने माता-पिता और अन्य रिश्तेदारों से सारे संबंध तोड़कर वह मेरे घर रहने आएगा. शादी के बाद मेरे रिश्तेदार ही उसके रिश्तेदार होंगे. वह मेरे माता-पिता की सेवा करेगा. घर का सारा काम निपटाकर उनके पैर दबाएगा और उनके सोने के बाद ही सोयेगा. सुबह जल्दी उठ कर सबके लिए चाय बनाएगा. मेरा नाश्ता और लंच तैयार करेगा. मेरे आफिस जाने के बाद घर का सारा काम निपटायेगा. उसके बाद अपने आफिस जायेगा.

मैं एक पोस्ट-ग्रेजुएट कम्पूटर इंजीनियर हूँ. मेरे होने वाले पति को किसी भी हालत में ग्रेजुएट से ज्यादा नहीं होना चाहिए. मेरी लम्बाई ५ फीट ८ इंच है. उस की लम्बाई मुझसे २ इंच कम होनी चाहिए. मेरा रंग गोरा है, इसलिए उसे सांवला होना चाहिए. मैं सुबह जल्दी आफिस जाती हूँ और देर से वापस आती हूँ. इसलिए उसे एक ऐसे दफ्तर में नौकर होना चाहिए जिसमें देर से जाना और जल्दी वापस आना सम्भव हो सके. इस से उसे घर का काम करने में आसानी होगी. वह अपनी सारी तनख्वाह मुझे लाकर देगा. मैं उसे उस के खर्चे के लिए पैसे दूँगी. उस का कोई दोस्त मेरे घर नहीं आएगा. जब मेरे दोस्त घर आयेंगे तो वह उन की सेवा में हाज़िर रहेगा. वह मुझे मेडम के नाम से पुकारेगा. अगर वह मुझे प्राणनाथिनी के नाम से पुकारे तो मुझे ज्यादा अच्छा लगेगा. जैसे जानवरों को नाथ पहना कर काबू में करते हैं बैसे ही मैं भी अपने पति को काबू में रखूँगी.

मैंने अपने बेडरूम में एक स्पेशल बेड बनबा रखा है. उस पर एक व्यक्ति ही सो सकता है. इस लिए मेरा पति जमीन पर चटाई विछाकर सोयेगा. मेरे सामने उस की आँखे हमेशा झुकी रहेंगी. वह तभी बोलेगा जब में उसे बोलने के लिए कहूँगी. मैं ब्लाग पर लिखती हूँ. मेरा पति मेरी पोस्ट पर टिपण्णी पोस्ट करेगा. इस टिपण्णी में उसे मेरी राय की तारीफ़ करनी होगी. वह अपने कुछ दोस्तों से भी तारीफ़ की टिपण्णी पोस्ट करवाएगा.

मांग में सिन्दूर, पैरों में पाजेब और विछुये, हाथों में चूड़ियां जैसी जितनी भी चीजें शादीशुदा नारी को पहनने को कहा जाता है, मैं नहीं पहनूंगी. करवाचौथ का व्रत एक मजाक है. लेकिन अगर मेरा पति यह सारी चीजें पहनना चाहे और व्रत रखना चाहे तो मुझे अच्छा लगेगा.

जो पुरूष इन शर्तों को पूरा करते हों मेरी इस पोस्ट पर टिपण्णी देकर आवेदन करें. यह विज्ञापन देकर मुझे बहुत अच्छा लग रहा है. आप सब प्रार्थना करें कि मुझे ऐसा पति जल्दी से मिल जाए.

Thursday, July 17, 2008

क्या शिक्षा केवल घर के बाहर जाकर नौकरी करने के लिए है?

परिवार के हर सदस्य के लिए शिक्षा आवश्यक है, इस पर तो कोई अलग राय हो ही नहीं सकती. शिक्षा का उद्देश्य क्या हो, इस पर अलग राय हो सकती हैं. पर आज कल जो उद्देश्य मुख्य बन गया है वह है, शिक्षा धनोपार्जन के लिए होती है. यह पूर्णतया सही नहीं है. पर आज की शिक्षण पद्धति का प्रारूप ही ऐसा बन गया है कि उसे प्राप्त कर के मनुष्य केवल धनोपार्जन ही कर सकता है. एक अच्छा इंसान बनने में यह शिक्षा कोई मदद नहीं करती. सच्चाई तो यह है कि इस शिक्षा से मनुष्य इंसानियत से दूर हो रहा है.

शिक्षा संस्थानों को मन्दिर कहा जाता था. अब वह मात्र दुकानें बन गई हैं. पैसा दीजिये और डिग्री लीजिये. राजनीति इन संस्थानों की प्रवेश, परीक्षा और परिणाम से सम्बंधित नीतियाँ तय करती है. आरक्षण शिक्षा संस्थानों की नींव खोखली कर रहा है. गुरु-शिष्य परम्परा नष्ट हो गई है. गुरु टीचर्स बन गए हैं और शिष्य स्टूडेंट्स हो गए हैं. स्टूडेंट्स टीचर्स पर योन शोषण का आरोप लगाते हैं. टीचर्स स्टूडेंट्स को बेरहमी से पीटते हैं. कुछ स्टूडेंट्स तो अपनी जान तक गवां चुके हैं. कालेज और यूनिवर्सिटी राजनीति का अखाड़ा बन गई हैं.

ऐसा नहीं है कि इन शिक्षा संस्थानों से निकले स्टूडेंट्स जीवन में सफलता प्राप्त नहीं करते. आज हर छेत्र में जो अभूतपूर्व प्रगति हो रही है वह यही लोग कर रहे हैं. पर यह सारी सफलता धनोपार्जन तक सीमित है. इस में मानवीय संवेदना कहीं पीछे छूट गई है. धन अर्जित करने की अपेक्षाएं आसमान छू रही हैं. अपेक्षित धन अर्जित न कर पाने से मानसिक विकृति पैदा हो रही हैं. अकसर अखबारों में आत्महत्या की खबरें छपती हैं. तनख्वाह में अन्तर बढ़ता जा रहा है. कुछ लोग ६ अंकों में तनख्वाह पा रहे हैं. दूसरी और तनख्वाह इतनी कम है कि घर चलाना मुश्किल हो रहा है. यह विषमता परिवार और समाज में तनाव पैदा कर रही है. इस विषमता ने अपराध का रूप लेना भी शुरू कर दिया है.

अधिकाँश नारियों के लिए शिक्षा का मतलब केवल घर के बाहर जाकर नौकरी करना है. इस से उन्हें घर की दासता से मुक्ति मिलती है. घर के अन्दर हर व्यक्ति उन पर जोर जमाता है, जबकि दफ्तर में वह दूसरों पर जोर जमाती हैं. जितनी देर वह घर से बाहर रहती हैं उन्हें घर का काम नहीं करना पड़ता. घर के बाहर वह स्वतंत्र हैं जबकि घर के अन्दर उन्हें गुलाम समझा जाता है. आज की प्रगतिशील नारी घर को जेल मानती है. आज उसे घर के रूप में एक होटल चाहिए जहाँ उसे पहुँचने पर कोई सलाम करे, एक गिलास पानी पेश करे. फ्रेश होकर टीवी देखें, नारी सशक्तिकरण पर भाषण दें जिसे सब शान्ति से सुनें और तारीफ़ करें, मन पसंद खाना और नाश्ता पेश किया जाए, सुबह उठ कर वह फ़िर से दफ्तर जाएँ. कुछ लोग इसे ग़लत मानते हैं. पर शायद इस में इन नारिओं की कोई गलती नहीं हैं. जो शिक्षा इन्होनें ली है उस में परिवार की यही परिभाषा इन्होने सीखी है.

स्वतंत्रता हर व्यक्ति चाहता है. पर उसके साथ कुछ जिम्मेदारियां भी आती हैं ऐसा आज की शिक्षा नहीं सिखाती. यह शिक्षा स्वयं के लिए अधिकार और दूसरों के लिए कर्तव्य के बारे में बताती है. यह शिक्षा विचारों में लचीलापन हो यह नहीं सिखाती. यह शिक्षा सिखाती है कि जो हम सोचते हैं वही सही है. जो हम से अलग सोचते हैं उनके ख़िलाफ़ जिहाद करो. परिवार तुम्हें गुलाम बनाता है तो इस परिवार को तोड़ दो.

अगर हमें परिवार बचाने हैं तो इस शिक्षा में आमूल परिवर्तन करने होंगे. शिक्षा केवल घर के बाहर जाकर नौकरी करने के लिए नहीं है, उसका मुख्य उद्देश्य आदमी को इंसान बनाना है.

Wednesday, July 16, 2008

मेरा परिवार - चोखेरवाली पर पोस्ट की कुछ टिप्पणियाँ

चोखेरवाली ब्लाग मंच पर एक बहस चली. विषय तो वही था पुराना - भारतीय परिवार और नारी अधिकार. मैं वहां की अपनी कुछ टिप्पणियों के कुछ अंश यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ. अगर आप चाहें तो इस लिंक पर जाकर सारी टिप्पणियाँ पढ़ सकते हैं:
http://sandoftheeye.blogspot.com/2008/07/blog-post_09.html

"अगर जीवन को एक सड़क कहा जाए तो उस पर औरत ही नहीं पुरूष भी बरसों से चल रहे हैं, साथ-साथ एक दूसरे से कदम मिला कर चल रहे हैं. वह दोनों अलग नहीं हैं. मैं यह कहूँगा कि एक परिवार चल रहा है. किसी को उस सड़क पर जबरन नहीं चलाया जा रहा. जीवन तो चलने का नाम है. हम चलें न चलें, जीवन तो चलता रहेगा. सिर्फ़ किसी के यह कह देने से कि 'इसी मे सब की भलाई है' से काम नहीं चलता. उस रास्ते पर चलने में विश्वास होना चाहिए. और ऐसा विश्वास मेरे परिवार की महिलाओं और पुरुषों दोनों में है. किसी को उस रास्ते पर चलाया नहीं जा रहा. सब अच्छी तरह सोच समझ कर उस रास्ते पर चल रहे हैं.

अगर रास्ता सही है और उस से जीवन सुखी है तब उसे बदलने की आवश्यकता नहीं होती. जहाँ कहीं जरूरी हो उस में सुधार करना चाहिए. लगातार सुधार जीवन का एक अभिन्न अंग है. अगर परिवार का कोई सदस्य यह रास्ता छोड़ कर एक अनजान रास्ते पर चलना चाहता है तब परिवार का यह दायित्व बनता है कि उसे समझाया जाए. उस को परिवार में अगर कोई परेशानी है तो उस का समाधान तलाश करके उस परेशानी को दूर किया जाए. परिवार एक टीम है. उसे सही रूप में चलाने के लिए सब का योगदान चाहिए. हर सदस्य के काम का अपना महत्त्व है. कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता.

अधिकार की अगर बात करें तो परिवार के सब सदस्यों के अधिकार बराबर होते है. लेकिन यह अधिकार पारिवारिक व्यवस्था के अंतर्गत देखे और इस्तेमाल किए जाने चाहिए. अधिकार जिम्मेदारिओं को सही तरीके से निबाहने में मदद करते हैं. बिना अधिकार के जिम्मेदारिओं की बात करना बेमानी है. किस जिम्मेदारी के लिए क्या अधिकार चाहिए, यह तय किया जाना चाहिए, फ़िर जिम्मेदारी दी जानी चाहिए. लेकिन एक बात का ध्यान रखना जरूरी है. जैसे अधिकार के बिना जिम्मेदारी बेमानी है, उसी प्रकार जिम्मेदारी के बिना अधिकार बेमानी है. दूसरी बात जो ध्यान रखना जरूरी है, वह यह है कि अधिकार दूसरों पर शाशन करने के लिए नहीं होते. अधिकार जिम्मेदारिओं को सही तरह से निभाने के लिए होते हैं. अगर दूसरों को किसी के किसी अधिकार से परेशानी होती है तो वह अधिकार सही नहीं है.

हमारी छोटी बेटी जिस परिवार से आई है, वहां परदे का रिवाज है. बड़ों के सामने बिना सर ढकें आना सही नहीं माना जाता. यह लड़की इस व्यवस्था को पसंद नहीं करती थी. उस के माता पिता इस बात से चिंतित रहते थे. बहुत से परिवारों में उस की शादी इस कारण से नहीं तय हो पाई. हमें उस की इस बात पर कोई ऐतराज नहीं था. आज वह हमारी बेटी है. मेरे विचार में सर ढंकना उतना जरूरी नहीं है जितना अपने बड़ों का आदर करना. मेरी एक भाभी अपने ससुर के सामने लंबा घूंघट रखती थी, पर जब कभी किसी बात पर बहस हो जाती तो ससुर जी को ऐसी खरी खोटी सुनाती थीं कि बस. मैं कहता था कि ऐसे घूंघट का क्या फायदा. आप घूंघट ख़त्म करो. वह कहती थीं कि इस से मोहल्ले और रिश्तेदारी में इज्जत बनी रहती है. घूंघट लिए रहो और सब को जम कर खरी खोटी सुनाओ. एक अच्छी बहू के रूप में उनकी बहुत तारीफ़ करती थीं दूसरी स्त्रियाँ.

हमारे घर की स्त्रियाँ पूरी तरह से स्वतंत्र हैं अपने बारे में निर्णय करने के लिए. उन के लिये क्या अच्छा हैं क्या बुरा हैं, वह स्वयं तय करने के लिए पूरी तरह योग्य हैं. घर के सब सदस्यों को उन पर पूरा विश्वास है. वह इस विश्वास का सम्मान करती हैं. यही सुखी जीवन का राज है."
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"मेरे परिवार में स्त्री अगर कुछ न भी कमाए तब भी स्वाबलंबी है, स्वतंत्र है, मेरे परिवार में स्त्री न केवल अपने निर्णय अपनी मर्जी से करती है बल्कि दूसरों के निर्णय में सहभागी है. उसे परिवार में बराबर के अधिकार प्राप्त हैं. यह परिवार एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था पर आधारित है जहाँ स्त्री और पुरूष परिवार की जिम्मेदारियां मिल कर निभाते हैं. यह व्यवस्था स्त्री और पुरूष दोनों ने आपसी सहमति से बनाई है. इस में किसी पर जोर जबरदस्ती नहीं की जाती. इस परिवार में स्त्रियाँ घर के बाहर नौकरी करने नहीं जातीं क्यों कि उन्हें इस की जरूरत महसूस नहीं होती. पर वह काम करती हैं. हमारी छोटी बेटी अपने पति के काम में उस की सहायता करती है. हमारी फर्म का काफ़ी काम दोनों बेटियाँ मिल कर करती हैं. बाहर का काम मैं देखता हूँ और ऐसा इस लिए है कि मैं उस काम को पिछले ४० सालों से कर रहा हूँ. लेकिन उस काम की प्रशाशनिक सपोर्ट मुझे अपनी दोनों बेटिओं से मिलती है. मुझे अपने परिवार पर गर्व है. मुझे इस सामजिक व्यवस्था पर गर्व है. यह व्यवस्था दुनिया की सब से अच्छी व्यवस्था है.

अगर कहीं इस व्यवस्था में कोई कमी आ गई है या किसी के अधिकार का हनन हो रहा है तो उस का विश्लेषण करके कमी को दूर किया जाना चाहिए, अधिकार का हनन बंद करना चाहिए. पूरी व्यवस्था को ही नकार देना कोई समझदारी की बात नहीं है. स्त्रियाँ घर के अन्दर काम करें या घर के बाहर, इस से कोई फर्क नहीं पड़ता. सबको परिवार के लिए बफादार होना चाहिए. आपस में प्रेम होना चाहिए. अधिकार और जिम्मेदारियों का समान बंटवारा होना चाहिए. उन महिलाओं से, जो घर की इस व्यवस्था मे अपने को सही ना समझ कर नए रास्ते पर चलना चाहती हैं, मेरा यही कहना है कि वह इस व्यवस्था में अपने को सही समझें. महिलायें घर के बाहर काम करेंगी तो अपने लिये नए आयाम भी पाएंगी. यह आयाम उन के परिवार के लिए गर्व की बात होगी. लेकिन इस का फायदा परिवार को न देकर अपने अलग रास्ते पर चल देना क्या एक प्रकार का स्वार्थ नहीं होगा? जो सदियों से होता आया है वह केवल ग़लत है यह जरूरी तो नहीं. उस में केवल बुराई ही क्यों देखी जाए? उस की अच्छाइयों को भी देखना चाहिए. अच्छाइयों को बल देना चाहिए और बुराइयों को दूर करना चाहिए."
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"घर में काम करना किसी स्त्री की नियति नही है", यह कहना एक नकारात्मक मानसिकता का परिणाम है. घर है तो घर का काम कोई तो करेगा. स्त्री घर में है तो घर का काम करेगी. दफ्तर में है तो दफ्तर का काम करेगी. इसमें नियति कहाँ से आ गई? मैं एक बात नहीं समझ पाता हूँ कि कुछ लोग हर बात को उलझाने की कोशिश क्यों करते हैं? घर का काम स्त्री क्यों करे? घर के काम की मजदूरी मिलनी चाहिए. अरे भई घर में रहते हो तो घर का मतलब समझो, घर के लिए अपनी जिम्मेदारी समझो, घर तो हर हालत में होता है, चाहे एक ही व्यक्ति क्यों न हो घर में तब भी वह घर ही होता है. ऐसे घर में भी काम होता है. जहाँ एक से ज्यादा व्यक्ति होते हैं उस घर में जिम्मेदारियों बंट जाती हैं. अगर कोई परेशानी है तो उसे घर के अन्य सदस्यों के साथ बात करके सुलझाओ. जरूरी लगे तो जिम्मेदारियों का फ़िर से बंटवारा कर लो. घर से बाहर निकल कर घर की समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता.
बचपन में एक कहानी पढ़ी थी एक बूढ़ी औरत की, जिसकी सुईं उसकी झोपड़ी में खो गई पर वह उसे चौराहे पर तलाश कर रही थी. लगता है आज कि प्रगतिशील नारी उसी औरत की कहानी दोहरा रही है. घर की समस्याओं का हल घर के बाहर तलाश रही है. "

परिवार का सशक्तिकरण

परिवार भारतीय समाज का केन्द्र बिन्दु है. परिवार भारतीय सामजिक व्यवस्था का आधार है. अगर परिवार मजबूत नहीं होंगे तो समाज मजबूत नहीं होगा. परिवार टूटेंगे तो समाज भी टूट कर बिखर जायेगा. भारतीय समाज में आज एक ऐसी असामाजिक व्यवस्था जन्म ले रही है जो मनुष्य को फ़िर से जंगल के कानून का गुलाम बना देगी. अनथक प्रयासों से की गई प्रगति शून्य हो जायेगी। मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं रह जायेगा।

परिवार एक टीम है। परिवार के सदस्यों का व्यवहार उसे एक संगठित या असंगठित टीम बना देता है। खेलों में हमने देखा है कि एक असंगठित टीम किस प्रकार हार जाती है, जब कि उसका हर सदस्य स्वयं में एक अच्छा खिलाड़ी होता है। इसी प्रकार परिवार भी आपसी संगठन न होने से कमजोर हो जाता है, जबकि उस का हर सदस्य स्वयं में मजबूत होता है। इस से यह साबित होता है कि परिवार के सब सदस्य कुशल हों और एक टीम के रूप में मिल जुल कर काम करें। इस के लिए यह जरूरी है कि परिवार के हर सदस्य को उचित अवसर मिलें, उचित संशाधन मिलें, समान अधिकार मिलें और समान जिम्मेदारियां हों।

नारी सशक्तिकरण की बात अक्सर की जाती है. यह सही भी है. लेकिन नारी परिवार से अलग हो कर सशक्त नहीं बन सकती. नारी ही क्या कोई भी परिवार से अलग हो कर सशक्त नहीं बन सकता. परिवार का हर सदस्य सशक्त होगा तभी परिवार सशक्त होगा. और जब परिवार सशक्त होगा तभी परिवार का हर सदस्य सशक्त होगा।

यह आवश्यक है कि हम सब मिल कर परिवारों के सशक्तिकरण का प्रयास करें. परिवार को तोड़ने की नहीं, जोड़ने की बात की जानी चाहिए. यही सब के हित में है.