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Save families, save society, save nation.

Thursday, February 26, 2009

बालिका वधु - एक नकारात्मक द्रष्टिकोण

कल रात बालिका वधु का एपिसोड देख कर बहुत दुःख हुआ. बैसे तो यह सीरिअल प्रारंभ से ही नकारात्मक द्रष्टिकोण पर आधारित है, पर कल तो हद हो गई. बाल विवाह एक सामाजिक कुरीति है. इसी तरह बाल विधवा से दुर्व्यवहार और उसके पुनर्विवाह का विरोध भी सामजिक कुरीति है. इन दोनों कुरीतिओं पर आधारित यह सीरिअल एक सही सन्देश देता है, पर इन कुरीतिओं को दूर करने का कोई ठोस समाधान नहीं सुझाता. जब भी इस कहानी में इन कुरीतिओं के विरोध में स्वर मुखर हुए उन्हें किसी न किसी तरीके से दबा दिया गया और एपीसोड के अंत में एक पंक्ति लिख कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली गई. 

आनंदी के विवाह का विरोध किया उसकी अध्यापिका ने, पर उसके माता-पिता और सारा गाँव दीवार बन कर खड़े हो गए. अध्यापिका कुछ नहीं कर पाई और एक होनहार छात्रा बचपन में ही व्याह दी गई. फिर उसका गौना भी कर दिया गया. जो गलत है वही इस सीरिअल में हुआ दिखाया गया. यही गहना के साथ हुआ. बेचारी की किसी ने नहीं सुनी. यह सब गलत है पर सीरिअल में यही सब हुआ. कोई नई बात, कोई नया समाधान नहीं सुझाया गया.  

सुगना का विवाह और फिर गौना उसी कड़ी का हिस्सा हैं. सुगना के माता-पिता समझदार हैं पर कोई उदहारण प्रस्तुत नहीं करते. चुपचाप अपनी माता का कहना मान लेते हैं. कल के एपिसोड के अंत में यही कहा गया कि जो कुछ हुआ वह बाल विवाह का दुष्परिणाम है. डाकुओं ने बारात लूट ली, वर की हत्या कर दी. क्या यह उन्होंने इसलिए किया कि वर वधु दोनों बच्चे थे? क्या डाकू उम्र देख कर लूट मार करते हैं? 

क्या सीरिअल के निर्माता ने यह सब कल्याणी को सबक सिखाने के लिए किया? ऐसा सबक सिखा दिया उसे. उसकी अपनी पोती को विधवा बना दिया. सुगना और प्रताप दोनों बच्चे इतने प्यारे, और उनके साथ ऐसा निर्मम अत्त्याचार किया निर्माता ने. क्या गलती थी उनकी? कल्याणी की गलती की सजा उन्हें क्यों? क्या कोई और तरीका नहीं था कल्याणी को उसकी गलती का एहसास कराने का. किसका विरोध करता है यह सीरिअल, इस सामाजिक कुरीति का या कल्याणी का? क्या एक बच्चे को मार कर और दूसरे को विधवा बना कर यह कुरीति दूर हो जायेगी? बापू ने कहा है - पाप से घ्रणा करो पापी से नहीं. पर यहाँ पापी से घ्रणा की गई. अच्छे खासे सुखी परिवारों में हमेशा के लिए दुःख ही दुःख की वारिश कर दी गई. बहुत निराश किया इस सीरिअल ने. 

टीवी पर एक सीरिअल और आ रहा है - साईं बाबा. उसमें भी विधवा विवाह की बात आती है. शिर्डी के एक परिवार की बेटी विधवा हो जाती है. उसकी ससुराल वाले उसका पुनर्विवाह करना चाहते हैं. पर उसके अपने माता-पिता इसका विरोध करते हैं. गाँव वाले उन्हें साईं बाबा के पास लाते हैं. बाबा उन्हें समझाते हैं और वह मान जाते हैं. उनकी विधवा बेटी का पुनर्विवाह हो जाता है. क्या यह तरीका गलत है? क्या ऐसा ही कोई तरीका बालिका वधु में नहीं अपनाया जा सकता था? 

वणी गाँव में देवी मंदिर के पुजारी की बेटी विधवा हो जाती है. गाँव के साथ-साथ उसके पिता भी उसके पुनर्विवाह के विरोधी हैं. साईं बाबा रूप बदल कर पुजारी के पास जाते हैं और उन्हें समझाते हैं. पुजारी की समझ में बात आ जाती है और वह सारे समाज का विरोध सह कर भी अपनी बेटी का पुनर्विवाह करने की प्रतीज्ञा करते हैं. पर तब तक उनकी बेटी अपने प्रति दुर्व्यवहार से दुखी होकर घर छोड़ कर जा चुकी होती है. पर ऐसा लग रहा है कि वह वापस आएगी और उस का पुनर्विवाह होगा. क्यों नहीं ऐसा कुछ बालिका वधु में हो सकता था? 

सामाजिक कुरीतिओं से लड़ने के लिए हमें अपना सोच सकारात्मक बनाना होगा. टीवी और फिल्म बहुत शशक्त  माध्यम हैं अपनी बात कहने की. सामाजिक कुरीतिओं के विरोध में सही बात सही तरीके से कही जानी चाहिए. 

Thursday, January 22, 2009

कमाल है - १७ साल में ७ बच्चे

अर्जेंटीना की पामेला विल्लार्रुएल की उम्र अभी केवल १७ वर्ष है पर वह ७ बच्चों की मां बन चुकी है. इसके लिए वह ३ बार गर्भवती हुई. पहली बार २००५ में जब वह १५ वर्ष की थी उसे १ बेटा हुआ. अगले दो सालों में वह दो बार गर्भवती हुई और उसे दोनों बार ३ जुड़वां बेटियाँ हुईं.  पामेला और उसके सात बच्चों की देखभाल उसकी मां करती है, घरों में सफाई का काम करके.  

पहले बच्चे का बाप पामेला को छोड़ कर चला गया. तीन जुड़वां बच्चों के बाप को उसने घर से निकाल दिया क्योंकि वह उसे पीटता था. बाकी तीन जुड़वां बच्चों के बाप का नाम बताने से पामेला इंकार करती है. 

पामेला की मां ने अपील की थी कि उसकी बेटी की फल्लोपियन ट्यूब्स बाँध दी जाएँ ताकि वह और गर्भवती न हो पर उसकी अपील नामंजूर हो गई क्योंकि कानून के अनुसार ऐसा आपरेशन नाबालिगों पर नहीं किया जा सकता. 

जब मुझे यह मेल मिला तो मुझे याद आया कि टीवी पर चल रहे सीरियल बालिका वधू में डाक्टर गहना को गर्भपात की सलाह देता है क्योंकि उसकी उम्र कम है. 


गर्ल्ज्ग्रूप से साभार  


Saturday, December 6, 2008

बुरी औरत

आज टीवी पर जितने ऐसे सीरिअल  दिखाए जा रहे हैं जिनमें परिवार का चित्रण है, उनमें कम से कम एक बुरी औरत जरूर होती है. यह बुरी औरत कोई भी हो सकती है - मां, सास, बेटी, बहु, बहन, भाभी, चाची, मामी, बुआ, दादी, मतलब परिवार की  कोई भी महिला सदस्य. यह बुरी औरत हमेशा जीतती हुई दिखाई जाती है. यह कभी हारती नहीं. सारे परिवार से अकेली लोहा लेती है. ईंट से ईंट बजा देती है परिवार की. एक सीरिअल में यह बुरी औरत एक बहन है. वह अपने भाई और भाभी की मार देती है. यह दोनों पुनर्जन्म लेते हैं, पर इस जन्म में भी यह बुरी औरत ही उन पर भारी पड़ती है. 

यह सीरियल वाले क्या दिखाना चाह रहे हैं? अगर यह सच है कि हर हिंदू परिवार में एक बुरी औरत जरूर होती है, तब तो यह बहुत चिंता का विषय है. और अगर यह सच नहीं है तो इन का उद्देश्य क्या हो सकता है? अगर यह प्रगतिशीलता की निशानी है तो क्या यह जरूरी है कि प्रगतिशील होकर बुरा बनना जरूरी है, या बुरा बन कर ही प्रगतिशील कहलाया जा सकता है? 

Monday, November 24, 2008

कब शांत होगी दहेज़ की भूख?

आज एक ब्लाग पर यह सवाल उठा है - कब रूकेगी लड़के वालों की दहेज़ की भूख? कब मिलेगा लड़कियों को उचित सम्मान?

प्रश्न जटिल हैं पर उत्तर बहुत आसान. प्रश्न सारे समाज को डस रहे हैं पर उत्तर हम में से हर एक के पास है - 'मुझे डकार आ गई, अब दहेज़ की भूख नहीं है. मैं लड़कियों को उचित सम्मान दूँगा'. इस को रोज सुबह की अपनी प्रार्थना  में शामिल कर लेना है बस. रात को सोते समय समीक्षा करनी है और ईश्वर का धन्यवाद करना है कि उस ने हमें नारी का अपमान करने से बचा लिया.  

Friday, November 21, 2008

गृहस्थाश्रम संसार का मूल है

गृहस्थाश्रम में स्त्री मुख्य है. उनके कारण ही मनुष्य गृहस्थ कहलाता है. साधुओं के मठ, आश्रम, धाम आदि को कोई घर नहीं कहता. मनुष्य वृक्ष के नीचे रहे, और अगर स्त्री वहां है तो वह घर हो जाता है. लेकिन आज पश्चिमी सभ्यता के अन्धानुकरण ने स्त्रियों को भोग-सामग्री बना दिया है. स्त्री को मात्र देहरूप में देखना उसका निरादर है. स्त्री को मां रूप में देखना चाहिए. मां का दर्जा बहुत ऊंचा है. 

गृहस्थाश्रम में पुरुषों और स्त्रियों को चाहिए कि सुई बनें, कतरनी (केंची) मत बने. सुई दो को एक कर देती है, कतरनी एक को दो कर देती है. ऐसा कोई काम न करें, जिससे कलह पैदा हो. घर में प्रेम रखें. बालकों को भोजन कराने में विषमता मत करें. बेटा और बेटी दोनों से सम व्यवहार करें. सास को चाहिए कि अगर कभी बेटी और बहू में अनबन हो जाए तो बहू का पक्ष लें. 

गृहस्थाश्रम में बहुत सावधानी से रहना चाहिए. छोटी से गलती से भी बहुत बड़ा नुक्सान हो सकता है. दूसरा कोई गलती भी कर दे तो उसे सह लेना चाहिए. घर के बाहर, दफ्तर या बिजनेस में हम दूसरों की गलतियाँ सहते हैं तो घर के अन्दर किसी की गलती को सहने से परहेज क्यों होना चाहिए? 

गृहस्थाश्रम एक पाठशाला है, जिस में प्रेम का पाठ पढ़ना चाहिए. 

Tuesday, September 9, 2008

नहीं हमें कन्या नही चाहिए

मैंने अपने ब्लाग पर एक पोस्ट लिखी थी -
कन्या भ्रूण हत्या को कैसे रोकें?

फ़िर अखबार में एक लेख पढ़ा इस विषय पर।
बहुत ही शर्म की बात है। कन्या के साथ ऐसा अन्याय? ऐसा तो जानवर भी नहीं करते।

Thursday, September 4, 2008

सरकार दहेज़ कानून की समीक्षा करेगी

सरकार ने यह मान लिया है कि दहेज़ कानून का काफ़ी दुरूपयोग हो रहा है। इसलिए उस ने इस कानून कि समीक्षा करने का निर्णय लिया है। अखबार में इसबारे में छपी ख़बर पढ़िये :

Wednesday, September 3, 2008

कन्या भ्रूण हत्या कैसे रोकें?

कन्या भ्रूण हत्या एक अमानवीय कार्य है, पर बहुत से मानव यह अमानवीय कार्य कर रहे हैं. जो मानव यह हत्या कर रहे हैं उनमें ज्यादा संख्या उन की है जो पढ़े-लिखे हैं, धनवान हैं और जिन के पास कोई उचित या अनुचित कारण भी नहीं है ऐसा करने का. फ़िर भी ऐसा हो रहा है. पंजाब में इस के परिणाम स्वरुप नारी-पुरूष अनुपात ८००:१००० हो गया है.

क्या किया जाना चाहिए यह हत्याएं रोकने के लिए?

सबसे पहली जरूरत है कानून में बदलाब की. आज ऐसे बहुत से कानून हैं जिन में नारी का हित पुरूष के हित से कम मापा गया है. यह कानून किसी न किसी रूप में नारी को पुरूष से कम अधिकार देते हैं, उस के साथ पक्षपात करते हैं. इन कानूनों को बदला जाना चाहिए. नारी हित को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना और उस का संरक्षण करना भारतीय कानून और समाज का प्रमुख दायित्व है. भारतीय कानून और समाज को अपना यह दायित्व निभाना चाहिए.

दूसरा तरीका है शिक्षा द्वारा इन मानवों को उनके द्वारा की जा रही भ्रूण हत्याओं के अमानवीय पक्ष के बारे में अवगत कराना. उन्हें यह बताया जाना चाहिए कि कन्या भ्रूण हत्या एक कानूनी और सामजिक अपराध है. पर यहाँ समस्या यह है कि पढ़े-लिखे लोगों को कैसे समझाया जाय? यह लोग सब जानते हैं पर फ़िर भी कन्या भ्रूण हत्या करने से बाज नहीं आते.

तीसरा रास्ता जो मुझे असरदार लगता है वह है धार्मिक आस्था का रास्ता. यह खुशी की बात है कि पंजाब में एक अभियान चलाया जा रहा है जिस का नाम है 'नन्ही छां'. इस अभियान का उद्घाटन रेनबेक्सी के चेयरमेन श्री हरपाल सिंह ने किया. इस अभियान में, अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर में आने वाले दर्शनार्थियों को एक नन्हा पौधा प्रसाद के रूप में दिया जायेगा. यह पौधा फरबरी-मार्च और अगस्त-सितम्बर में हर दर्शनार्थी को दिया जायेगा. अनुमानतः लगभग १५०००० से २००००० दर्शनार्थी हर दिन स्वर्ण मन्दिर में आते हैं. इस के पीछे यह भावना है कि जैसे एक नन्हा पौधा बड़ा होकर एक वृक्ष बनता है जो मानवों को जीवित रहने के लिए आक्सीजन देता है, उसी प्रकार एक कन्या बड़ी होकर एक नारी बनती है और मां बनकर मानव जीवन प्रदान करती है. यहाँ धार्मिक भावनाओं का प्रयोग करके लोगों को यह बताना है कि कन्या भ्रूण हत्या ईश्वर के प्रति भी एक घोर अपराध है और इस से बचना चाहिए.

Monday, September 1, 2008

क्या आपने यह ख़बर पढ़ी है?

अपनी पसंद के इंसान से शादी की इच्छा करने की यह सजा? या अल्लाह तुम्हारे नाम पर यह कैसा जुल्म हो रहा है?

Saturday, August 30, 2008

हम बेटी वालें हें

आप अगर बेटी वाले हें तो यह लेख आपके लिए है।

Wednesday, August 27, 2008

राम दुलारी की कहानी

राम दुलारी ने आठवीं कक्षा पास की है, ऐसा उस के परिवार वालों ने कहा था. जिन श्रीमान से उसकी शादी हुई उन्होंने समाज शास्त्र में एम्ऐ किया था पर समाज और शास्त्र के बारे में उनका ज्ञान गुलशन नंदा और प्यारेलाल आवारा के सस्ते उपन्यासों तक ही सीमित था. उधर राम दुलारी को समाज क्या है और शास्त्र क्या कहता है और उसका अपने पक्ष में कैसे इस्तेमाल करना है इसकी पूरी जानकारी थी. शादी होकर जब वह पहली बार ससुराल आई तो उसने तुंरत एलान कर दिया कि सब उसे पुष्पा के नाम से पुकारेंगे. राम दुलारी नाम उसे अच्छा नहीं लगता. फ़िर धीरे-धीरे उसने बताना शुरू किया कि और क्या-क्या उसे अच्छा नहीं लगता. अच्छा न लगने वालों की लिस्ट में सबसे ऊपर उसकी सास का नाम था. फ़िर एक दिन पुष्पा ने घोषणा की कि इस घर से उसका सम्बन्ध सिर्फ़ उस के पति तक सीमित है. कोई और व्यक्ति उस से किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध बनाने की कोशिश न करे. श्रीमान जी की माता जी ने इसे बुझे मन से स्वीकार कर लिया. बेचारी पहले ही अपनी सास के सामने कुछ नहीं बोलती थीं, अब बहू के सामने भी कुछ नहीं बोलेंगी.

पुष्पा ने कुछ दिन बाद अपना चूल्हा-चौका अलग कर लिया. उसके घर के हिस्से में उसके परिवार (मायके) के लोग इकठ्ठा रहते और खूब मजाक उड़ाते श्रीमान जी के परिवार वालों का. श्रीमान जी सस्ते सामाजिक उपन्यासों के साथ पकौड़ी और चाय गुटकते और अपने जीवन को धन्य मानते. समय रहते पुष्पा ने सेकंड लाइन आफ ओफेंस तैयार कर डाला, दो बेटे और दो बेटियाँ. बड़ी बेटी ने ससुराल जाकर अपनी मां का नाम रोशन किया. छोटी बेटी ने भी यह कोशिश की पर कामयाब नहीं हुई. उसके श्रीमान जी कुछ दूसरी किस्म के श्रीमान जी थे जो कहने में कम और करने में ज्यादा विश्वास करते थे. उनका 'काम के नीचे दो थप्पड़' का फार्मूला काम आया और पुष्पा की छोटी बेटी एक ही चूल्हे में कैद हो गई.

फ़िर पुष्पा ने शादी की बड़े बेटे की. बहू के घर में प्रवेश करते ही पुष्पा ने अपना वायो-डाटा उसे सुना दिया. बेचारी इतना डर गई कि कभी कुछ बोली ही नहीं. पुष्पा ने उसका काफ़ी सामान अपने कब्जे में कर के उसे अलग कर दिया. या यह कहिये कि छोटे बेटे को साथ लेकर अलग हो गई. बस यहीं पुष्पा गच्चा खा गई. जिस बेटे पर उस ने अपनी सारी उम्मीदें लगा रखी थीं वह छोटा बेटा जरा दूसरे टाइप का निकल गया. उसने साफ़-साफ़ कह दिया कि मां-बाप उसके साथ रह सकते हैं पर उन्हें अपना खर्चा ख़ुद करना होगा. पुष्पा के दुर्भाग्य से छोटी बहू भी उसी के टाइप की निकली. नहले पर देहला हो गया. कुछ दिन बाद छोटे बेटे ने अलग मकान ले लिया. पुराने मकान में एक कमरा छोड़ कर बेटा बाकी कमरों में ताला लगा गया. अब पुष्पा अपने श्रीमान जी के साथ इस कमरे में रहती हैं. श्रीमान जी ६८ वर्ष की आयु में नौकरी करते हैं तब दो वक्त की रोटी मिल पाती है. पुष्पा समय बिताने के लिए जादू-टोना करती है. बीमार रहती है पर उस से सब डरते हैं, पता नहीं कब किस पर जादू-टोना करदे.

राम दुलारी की कहानी यहाँ विश्राम लेती है. आगे की कहानी जब जैसा होगा बताया जाएगा.

Tuesday, August 26, 2008

आज बजेगा अन्याय के ख़िलाफ़ युद्ध का बिगुल

'पापा मैं शादी नहीं करूंगी', नीता घर में घुसते हुए चिल्लाई.
पिता अकस्मात इस हमले से आश्चर्यचकित हो गए. फ़िर संभल कर बोले, 'क्या हुआ बेटी?'
बेटी बोली, 'आपको पता है न, ममता की तीन महीने पहले शादी हुई थी, तभी से उसकी ससुराल वाले उसे दहेज़ के लिए परेशान कर रहे हैं. दो इन पहले उस के पति ने उसे बहुत बुरी तरह मारा'.
पिता दुबारा चकराए, 'अरे यह तो बहुत ग़लत बात है. क्या ममता ने इस का विरोध नहीं किया?'
'वह क्या करती', बेटी ने कहा, 'पति उसे पीट रहा था, उसकी मां और बहन उसकी दाद दे रही थी, पिता चुपचाप बैठे तमाशा देख रहे थे'.
'पर ममता तो अकेली इन चारों के लिए काफ़ी थी. उस ने कराते किस लिए सीखा था?' पिता बोले.
'पापा वह उस का पति था', बेटी रोने को हो आई.
'नहीं, जो पुरूष उसे पीट रहा था उसका पति नहीं था', पिता ने कहा, 'पति पत्नी को पीटता नहीं, पति पत्नी की रक्षा करता है. जो उसे पीट रहा था वह एक वहशी दरिंदा था, और ऐसे वहशी दरिंदों को सबक देने के लिए ही उस ने कराते सीखा था'.
'पर पापा',
'कुछ पर बर नहीं', पिता बोले, 'ममता ने चुपचाप पिट कर अन्याय का साथ दिया है. अब मुझे यह बताओ, उस के पिता क्या कर रहे हैं? उसके आफिस के लोग क्या कर रहे हैं? तुम उसकी सहेली हो, तुम क्या कर रही हो?'
'उसके पिता उसे अपने घर ले गए हैं. आफिस के लोग और मैं क्या कर सकते हैं?'
'कैसी बात कर रही हो? बेटी तुमने आज मुझे निराश किया'.
'क्यों पापा, मुझे क्या करना चाहिए था",
'पुलिस में रिपोर्ट लिखाओ, उस दरिन्दे के दफ्तर जाकर प्रदर्शन करो, ममता से कहो वापस अपनी ससुराल जाए. अपने पिता के घर जाकर उस ने दूसरी गलती की है'.
'लेकिन वह फ़िर मारेंगे उसे'.
'ममता से कहो कि अगर वह दुबारा उस पर हाथ उठाये तो वह उस का हाथ तोड़ दे'.
'पापा यह क्या कह रहे हैं आप?'
'मैं सही कह रहा हूँ', पिता ने द्रढ़ता से कहा, 'अगर तुम्हारे साथ ऐसी स्थिति आई तो मैं चाहूँगा तुम भी यही करो'.
'पापा इसीलिए तो मैंने शादी न करने का फ़ैसला किया है'. बेटी बोली.
'यह फ़ैसला ग़लत है. दफ्तर में यौन शोषण की घटनाएं होती हैं, क्या इस लिए तुमने दफ्तर जाना छोड़ दिया है? सड़कों पर गुंडे चैन छीनकर भाग जाते हैं, क्या इसलिए तुमने घर से बाहर निकलना बंद कर दिया है? अन्याय, शोषण और अत्त्याचार के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़नी है, उस से हार नहीं माननी. ममता ने अगर इस समय हार मान ली तो उस की सारी जिंदगी नर्क बन जायेगी. उसे लड़ना है अपने लिए, अपने माता-पिता के लिए, अपने जैसी और लड़कियों के लिए. उस की इस लड़ाई में हम सबने उस का साथ देना है. वह जीतेगी तो हम जीतेंगे, तुम जीतोगी, हमारा समाज जीतेगा'.
'आप ठीक कह रहे हैं पापा', बेटी की आवाज में एक दृढ निश्चय था,'मैं घबरा गई थी, मुझे माफ़ कर दीजिये. अब आपकी बेटी आप को निराश नहीं करेगी'.
और वह फुन्कारती हुई घर से बाहर निकल गई.
आज बजेगा अन्याय के ख़िलाफ़ युद्ध का बिगुल.

Saturday, August 23, 2008

भगवान् बोले,मैंने भी तो अपना घर बचाना है

कल रात मैंने एक सपना देखा,
सपने में देखा भगवान् को,
मैं तो उन्हें पहचान नहीं पाया,
पहले कभी देखा नहीं था न,
पर वह मुझे पहचान गए,
कहने लगे, 'तुम सुरेश हो न?',
मैंने कहा हाँ, और आप?
उन्होंने बताया मैं भगवान् हूँ,
मैंने कहा आप से मिल कर बहुत खुशी हुई,
'लेकिन मुझे नहीं हुई', वह बोले,
मैं घबरा गया, काँपने लगा,
बोला, 'क्या गलती हो गई भगवन?'
'यह क्या उल्टा-सुलटा लिखते रहते हो ब्लाग्स पर?
जानते नहीं यह नारी प्रगति का ज़माना है,
और कलियुग में प्रगति का मतलब है उल्टा चलना,
वास्तव में यह उल्टा चलना ही सीधा चलना है,
इतनी सी बात नहीं समझ पाते तुम?
अब नारी घर के बाहर रहेगी,
हर वह काम करेगी जो पुरूष करता है,
घर चलाना है तो पुरूष को करना होगा हर वह काम,
जो नारी करती थी अब तक,
वरना न घर होगा न घरवाली',
इतना कह कर वह अद्रश्य होने लगे,
मैं चिल्लाया, 'मेरी बात तो सुनिए',
अद्रश्य होते-होते वह बोले,
'इतना ही समय दिया था मुझे मेरी पत्नी ने,
मैंने भी तो अपना घर बचाना है'.

Saturday, August 16, 2008

लड़कियों को दिए जाने वाले आशीर्वाद

सोमवार की बात है. शताब्दी एक्सप्रेस से चंडीगढ़ जा रहा था. वेटर अखबार देने आया तो हिन्दी का अखबार ले लिया. उसमें एक लेख था - "लड़कियों को दिए जाने वाले आशीर्वाद". लेख का सारांश था - 'भारतीय समाज में लड़कियों को दिए जाने वाले आशीर्वाद ऐसे हैं, जो घूम फ़िर कर उन के पति की लम्बी आयु की ही कामना करते दिखाई पड़ते हैं या फ़िर उन के पुत्र जन्म के लिए प्रेरित हैं. लकिन आज समय बदल गया है. आज के दौर में दूधों नहाओ पूतो फलो जैसे आशीर्वादों का कोई अर्थ नहीं है. आज की लड़कियां चाहती हैं कि इस आशीर्वादों की जगह नए आशीर्वाद दिए जाने की स्वस्थ परम्परा शुरू होनी चाहिए".

लेखक सुधांशु गुप्त ने इन आशीर्वादों का कोई अर्थ नहीं है, यह तो कह दिया पर नए आशीर्वाद क्या हों इस बारे में कुछ नहीं कहा. कुछ स्त्रियों के बारे में भी उन्होंने लिखा है जो इन आशीर्वादों को अर्थहीन मानती हैं या अपमान समझती हैं, पर उन्होंने भी नए आशीर्वाद क्या हों इस बारे में कुछ नहीं कहा. 'दूधों नहाओ पूतो फलो' का नया रूप क्या होना चाहिए? 'सौभाग्यवती भव' पर उन्हें ऐतराज है क्योंकि इस का मतलब है कि पत्नी पति से पहले मरे. इस ऐतराज को कैसे दूर किया जाए? मेरे विचार में जिन स्त्रियों को यह आशीर्वाद अपमानजनक लगते हैं, उन्हें इस बारे में कुछ करना होगा. एक तरीका हो सकता है कि आशीर्वाद देने की इस अस्वस्थ परम्परा को ही समाप्त कर दिया जाय. पर आज भी ऐसी बहुत सी स्त्रियाँ हैं जो प्रणाम करते समय इन आशीर्वादों की ही इच्छा रखती हैं. उनके लिए यह आशीर्वाद पूरी तरह अर्थपूर्ण हैं. पति-पत्नी के बीच में प्रेम और इन आशीर्वादों में एक सम्पूर्ण सामंजस्य हैं. इस लिए यह तरीका प्रक्टिकल नहीं लगता. यह हो सकता है कि प्रणाम करते समय पहले ही कह दिया जाय कि कौन सा आशीर्वाद चाहिए, पति के पक्ष में या पत्नी के पक्ष में. या यह भी हो सकता है कि प्रणाम करना ही बंद कर दिया जाय. न होगा बांस न बजेगी बांसुरी.

मुझे जब भी कोई प्रणाम करता है या करती है, तो में एक ही आशीर्वाद देता हूँ - 'सुखी रहो, स्वस्थ रहो, सानंद रहो'. यह आशीर्वाद सबके लिए है, विवाहित या अविवाहित, पुरूष या स्त्री. अभी तक तो किसी ने इस पर ऐतराज किया नहीं. बैसे भी में जबरदस्ती आशीर्वाद नहीं देता. जब कोई प्रणाम करता है तभी आशीर्वाद देता हूँ.

Sunday, August 10, 2008

इन नारियों की भी चिंता करो

दिल्ली में लगभग २००.००० ऐसी महिला मजदूर हैं जो दूसरे शहरों से आई हैं और कंस्ट्रक्शन साइट्स पर काम करती हैं. यह महिलायें रोजगार की तलाश में दिल्ली आती है और अमानवीय परिस्थितियों में रहने के लिए विवश हैं. इन की दयनीय स्थिति के बारे में जानने के लिए नीचे दी गई लिंक पर क्लिक करें.

Sorry state of Delhi's women labourers

मैंने इंटरनेट से कुछ तस्वीरें ली हैं जो यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ. यह तस्वीरें ख़ुद ही सब कुछ कह रही हैं.


























































दिल्ली में मादीपुर नाले के किनारे यह महिलाएं अपने परिवार के साथ रह रही हैं।

आज कल ब्लाग्स पर नारी प्रगति के बारे में बहुत कुछ लिखा जा रहा है. पर इन मजदूर महिलाओं के हालात सुधारे बिना नारी प्रगति की बात करना मुझे एक अपराध सा लगता है. मैंने कई बार यह बात इन ब्लाग्स पर उठाई है पर कोई इस बात का नोटिस ही नहीं लेता. कितना दुर्भाग्यपूर्ण है यह.