चोखेरवाली ब्लाग मंच पर एक बहस चली. विषय तो वही था पुराना - भारतीय परिवार और नारी अधिकार. मैं वहां की अपनी कुछ टिप्पणियों के कुछ अंश यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ. अगर आप चाहें तो इस लिंक पर जाकर सारी टिप्पणियाँ पढ़ सकते हैं:
http://sandoftheeye.blogspot.com/2008/07/blog-post_09.html
"अगर जीवन को एक सड़क कहा जाए तो उस पर औरत ही नहीं पुरूष भी बरसों से चल रहे हैं, साथ-साथ एक दूसरे से कदम मिला कर चल रहे हैं. वह दोनों अलग नहीं हैं. मैं यह कहूँगा कि एक परिवार चल रहा है. किसी को उस सड़क पर जबरन नहीं चलाया जा रहा. जीवन तो चलने का नाम है. हम चलें न चलें, जीवन तो चलता रहेगा. सिर्फ़ किसी के यह कह देने से कि 'इसी मे सब की भलाई है' से काम नहीं चलता. उस रास्ते पर चलने में विश्वास होना चाहिए. और ऐसा विश्वास मेरे परिवार की महिलाओं और पुरुषों दोनों में है. किसी को उस रास्ते पर चलाया नहीं जा रहा. सब अच्छी तरह सोच समझ कर उस रास्ते पर चल रहे हैं.
अगर रास्ता सही है और उस से जीवन सुखी है तब उसे बदलने की आवश्यकता नहीं होती. जहाँ कहीं जरूरी हो उस में सुधार करना चाहिए. लगातार सुधार जीवन का एक अभिन्न अंग है. अगर परिवार का कोई सदस्य यह रास्ता छोड़ कर एक अनजान रास्ते पर चलना चाहता है तब परिवार का यह दायित्व बनता है कि उसे समझाया जाए. उस को परिवार में अगर कोई परेशानी है तो उस का समाधान तलाश करके उस परेशानी को दूर किया जाए. परिवार एक टीम है. उसे सही रूप में चलाने के लिए सब का योगदान चाहिए. हर सदस्य के काम का अपना महत्त्व है. कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता.
अधिकार की अगर बात करें तो परिवार के सब सदस्यों के अधिकार बराबर होते है. लेकिन यह अधिकार पारिवारिक व्यवस्था के अंतर्गत देखे और इस्तेमाल किए जाने चाहिए. अधिकार जिम्मेदारिओं को सही तरीके से निबाहने में मदद करते हैं. बिना अधिकार के जिम्मेदारिओं की बात करना बेमानी है. किस जिम्मेदारी के लिए क्या अधिकार चाहिए, यह तय किया जाना चाहिए, फ़िर जिम्मेदारी दी जानी चाहिए. लेकिन एक बात का ध्यान रखना जरूरी है. जैसे अधिकार के बिना जिम्मेदारी बेमानी है, उसी प्रकार जिम्मेदारी के बिना अधिकार बेमानी है. दूसरी बात जो ध्यान रखना जरूरी है, वह यह है कि अधिकार दूसरों पर शाशन करने के लिए नहीं होते. अधिकार जिम्मेदारिओं को सही तरह से निभाने के लिए होते हैं. अगर दूसरों को किसी के किसी अधिकार से परेशानी होती है तो वह अधिकार सही नहीं है.
हमारी छोटी बेटी जिस परिवार से आई है, वहां परदे का रिवाज है. बड़ों के सामने बिना सर ढकें आना सही नहीं माना जाता. यह लड़की इस व्यवस्था को पसंद नहीं करती थी. उस के माता पिता इस बात से चिंतित रहते थे. बहुत से परिवारों में उस की शादी इस कारण से नहीं तय हो पाई. हमें उस की इस बात पर कोई ऐतराज नहीं था. आज वह हमारी बेटी है. मेरे विचार में सर ढंकना उतना जरूरी नहीं है जितना अपने बड़ों का आदर करना. मेरी एक भाभी अपने ससुर के सामने लंबा घूंघट रखती थी, पर जब कभी किसी बात पर बहस हो जाती तो ससुर जी को ऐसी खरी खोटी सुनाती थीं कि बस. मैं कहता था कि ऐसे घूंघट का क्या फायदा. आप घूंघट ख़त्म करो. वह कहती थीं कि इस से मोहल्ले और रिश्तेदारी में इज्जत बनी रहती है. घूंघट लिए रहो और सब को जम कर खरी खोटी सुनाओ. एक अच्छी बहू के रूप में उनकी बहुत तारीफ़ करती थीं दूसरी स्त्रियाँ.
हमारे घर की स्त्रियाँ पूरी तरह से स्वतंत्र हैं अपने बारे में निर्णय करने के लिए. उन के लिये क्या अच्छा हैं क्या बुरा हैं, वह स्वयं तय करने के लिए पूरी तरह योग्य हैं. घर के सब सदस्यों को उन पर पूरा विश्वास है. वह इस विश्वास का सम्मान करती हैं. यही सुखी जीवन का राज है."
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"मेरे परिवार में स्त्री अगर कुछ न भी कमाए तब भी स्वाबलंबी है, स्वतंत्र है, मेरे परिवार में स्त्री न केवल अपने निर्णय अपनी मर्जी से करती है बल्कि दूसरों के निर्णय में सहभागी है. उसे परिवार में बराबर के अधिकार प्राप्त हैं. यह परिवार एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था पर आधारित है जहाँ स्त्री और पुरूष परिवार की जिम्मेदारियां मिल कर निभाते हैं. यह व्यवस्था स्त्री और पुरूष दोनों ने आपसी सहमति से बनाई है. इस में किसी पर जोर जबरदस्ती नहीं की जाती. इस परिवार में स्त्रियाँ घर के बाहर नौकरी करने नहीं जातीं क्यों कि उन्हें इस की जरूरत महसूस नहीं होती. पर वह काम करती हैं. हमारी छोटी बेटी अपने पति के काम में उस की सहायता करती है. हमारी फर्म का काफ़ी काम दोनों बेटियाँ मिल कर करती हैं. बाहर का काम मैं देखता हूँ और ऐसा इस लिए है कि मैं उस काम को पिछले ४० सालों से कर रहा हूँ. लेकिन उस काम की प्रशाशनिक सपोर्ट मुझे अपनी दोनों बेटिओं से मिलती है. मुझे अपने परिवार पर गर्व है. मुझे इस सामजिक व्यवस्था पर गर्व है. यह व्यवस्था दुनिया की सब से अच्छी व्यवस्था है.
अगर कहीं इस व्यवस्था में कोई कमी आ गई है या किसी के अधिकार का हनन हो रहा है तो उस का विश्लेषण करके कमी को दूर किया जाना चाहिए, अधिकार का हनन बंद करना चाहिए. पूरी व्यवस्था को ही नकार देना कोई समझदारी की बात नहीं है. स्त्रियाँ घर के अन्दर काम करें या घर के बाहर, इस से कोई फर्क नहीं पड़ता. सबको परिवार के लिए बफादार होना चाहिए. आपस में प्रेम होना चाहिए. अधिकार और जिम्मेदारियों का समान बंटवारा होना चाहिए. उन महिलाओं से, जो घर की इस व्यवस्था मे अपने को सही ना समझ कर नए रास्ते पर चलना चाहती हैं, मेरा यही कहना है कि वह इस व्यवस्था में अपने को सही समझें. महिलायें घर के बाहर काम करेंगी तो अपने लिये नए आयाम भी पाएंगी. यह आयाम उन के परिवार के लिए गर्व की बात होगी. लेकिन इस का फायदा परिवार को न देकर अपने अलग रास्ते पर चल देना क्या एक प्रकार का स्वार्थ नहीं होगा? जो सदियों से होता आया है वह केवल ग़लत है यह जरूरी तो नहीं. उस में केवल बुराई ही क्यों देखी जाए? उस की अच्छाइयों को भी देखना चाहिए. अच्छाइयों को बल देना चाहिए और बुराइयों को दूर करना चाहिए."
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"घर में काम करना किसी स्त्री की नियति नही है", यह कहना एक नकारात्मक मानसिकता का परिणाम है. घर है तो घर का काम कोई तो करेगा. स्त्री घर में है तो घर का काम करेगी. दफ्तर में है तो दफ्तर का काम करेगी. इसमें नियति कहाँ से आ गई? मैं एक बात नहीं समझ पाता हूँ कि कुछ लोग हर बात को उलझाने की कोशिश क्यों करते हैं? घर का काम स्त्री क्यों करे? घर के काम की मजदूरी मिलनी चाहिए. अरे भई घर में रहते हो तो घर का मतलब समझो, घर के लिए अपनी जिम्मेदारी समझो, घर तो हर हालत में होता है, चाहे एक ही व्यक्ति क्यों न हो घर में तब भी वह घर ही होता है. ऐसे घर में भी काम होता है. जहाँ एक से ज्यादा व्यक्ति होते हैं उस घर में जिम्मेदारियों बंट जाती हैं. अगर कोई परेशानी है तो उसे घर के अन्य सदस्यों के साथ बात करके सुलझाओ. जरूरी लगे तो जिम्मेदारियों का फ़िर से बंटवारा कर लो. घर से बाहर निकल कर घर की समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता.
बचपन में एक कहानी पढ़ी थी एक बूढ़ी औरत की, जिसकी सुईं उसकी झोपड़ी में खो गई पर वह उसे चौराहे पर तलाश कर रही थी. लगता है आज कि प्रगतिशील नारी उसी औरत की कहानी दोहरा रही है. घर की समस्याओं का हल घर के बाहर तलाश रही है. "
Wednesday, July 16, 2008
मेरा परिवार - चोखेरवाली पर पोस्ट की कुछ टिप्पणियाँ
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3 comments:
सुरेश जी
बहुत सुन्दर और सारगर्भित लेख लिखा है। मैं भी मूलरूप से यही मानती हूँ कि नर-नारी एक दूसरे के पूरक हैं। बिना कारण विवाद ना करके समस्या (यदि है तो ) का समाधान निकालना चाहिए। इतना अच्छा लिखने के लिए बधाई।
मैंने इससे पहले नारी-मुक्ति के नाम पर लिखने वालों पर इतना सटीक कटाक्ष कभी नहीं सुना था. और शायद ये कटाक्ष है ही नहीं - ये तो सिर्फ़ एक वितर्क है. आगे भी आपका लिखा पढता रहूँगा.
आप के विचार अनुकरणीय हैं ! इस विषय पर आप शेर्ष्ठ हैं, कृपया लिखते रहें !
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